Friday, January 2, 2009

नया साल, नयी उम्मीदें

करीब करीब छह महीने बाद ब्लॉग पर लिखने बैठा हूं ... नया साल आ गया ... साल 2009 यानि मौत की तरफ एक और कदम ... जो भी पढ़ेगा कहेगा,, कहेगा क्या निराशावादी सोच है ... मौत की तरफ कदम ... नये साल पर ऐसी सोच ... लेकिन जिन्दगी की हकीकत यही है ... किसी महापुरुष (नाम याद नहीं) से जब पूछा गया था कि जिन्दगी क्या है ... तो उनका सीधा सा उत्तर था ... मौत का इंतजार ... इस लिहाज से देखे तो जिन्दगी का एक साल और कम हो गया ... और मौत का वरण करने के लिए हमने एक कदम और आगे बढ़ा दिया ... बात जब मौत की निकल ही पड़ी है ... तो सोचता हूं कि क्या मौत या ये शब्द वास्तव में निराशाजनक है ... passimistic है ... क्या मौत का जिक्र आशाजनक या पॉजिटिव सेंस में नहीं हो सकता ... मेरा विचार से शायद हो सकता है ... क्योंकि ये मौत ही है जो इंसान को डरपोक बनाती है ... केवल मौत का ही डर होता है तो इंसान से कुछ भी करवा लेता है ... जिसने इस डर को जीत लिया वो कुछ भी कर सकता है ... ये तो हुआ मौत का पॉजिटिव पहलू ... लेकिन इसी विचार का निगेटिव यानि नकारात्मक पहलू भी हो सकता है कि मौत के डर को जीतने वाले कितने विध्वंसक हो सकते हैं ... अगर इंसान में मौत का खौफ न हो तो हर इंसान मरने -मारने पर उतारू हो जायेगा ...
खैर ... बात हो रही थी नये साल की ... इस बार नया साल कैसे दबे पॉव आ गया पता ही नहीं चला ... शायद ये हालात का असर है ... न कोई खुशी,, न कोई जश्न ... अन्दर से ही कोई उत्साह नहीं ... ऐसा नहीं होना चाहिये,, बाहरी हालातों को इस तरह शायद खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिये लेकिन असर तो हुआ ही ... लेकिन फिर भी कतरा कतरा बह रही इस जिन्दगी में उम्मीद की किरण अभी भी चमक रही है ... कि कहीं न कहीं इस जिन्दगी के समुन्दर में मेरे हिस्से का मोती भी मेरा इंतजार कर रहा होगा ... और इसके लिए इस समुन्दर में गोता तो लगाना ही होगा फिर भले ही लहरें उल्टी ही क्यों न चल रही हों ...
देश में भी कुछ ऐसा नहीं हो रहा जो उत्साह का संचार कर सके ... अर्थव्यवस्था पर मंदी की मार है ... देश में पड़ोसी देश से आयातित आतंकवाद चरम पर है ... और सफेद कपड़े पहनने वाले हमारे नेता पहले की तरह दुनिया भर में देश में आतंकवादी हमले का रोना रो रहे हैं ... जैसे हममें तो इतनी कूवत है नहीं कि इस मसले की जड़ को उखाड़ सकें ... पता नहीं देश को ऐसे नेता कब तक ढोने पड़ेंगे ... जो अपना ही बोझ मुश्किल से उठा पाते हैं ... क्यों नहीं मिलते हमारे देश को बिल क्लिंटन और बराक ओबामा जैसे युवा नेता ... जिनकी बातों में उत्साह हो,, चाल में तेजी हो और विचारों में दृढ़ता ... जो कहें करके दिखायें ... कुछ कहें तो लोगों को उस पर विश्वास हो ... राजीव गांधी कहीं न कहीं इस फ्रेम में फिट बैठते थे ... लेकिन पहले कार्यकाल में वो परिपक्वता नहीं दिखा पाये ... और दुर्भाग्यवश भगवान ने दूसरा मौका उन्हें दिया नहीं ...
ऋतु राज गुप्ता

1 comment:

Aadarsh Rathore said...

सब ऐसा ही है भाई... क्या करें...
सब "लाचार" हैं