Wednesday, July 23, 2008

क्या यह सही था ?


23 जुलाई, 2008
पिछले दो दिनों से सरकार को बचाने और गिराने का खेल चल रहा था ... सत्ता पक्ष यानि यूपीए दावा कर रहा था कि उसको सदन में बहुमत हासिल है ... लेकिन विपक्ष का अपना दावा था ... जिस तरह का अंक गणित था उससे कहीं न कहीं लग रहा था कि मनमोहन सिंह की सरकार गिर ही जायेगी ... लेकिन यूपीए के साथ समाजवादी पार्टी साथ आयी और शुरु हो गया जोड़तोड़ का खेल ... हर कोई जान रहा था कि पर्दे के पीछे क्या कुछ चल रहा है ... हर कोई जान समझ रहा था कि नरसिम्हा राव ने जिस तरह झामुमो के सांसदों की मदद से अपनी सरकार का बचाव किया था ... करीब करीब उसी तरह से मनमोहन सिंह की सरकार को बचाने की कोशिश की जा रही है ... लेकिन यह सब कुछ पर्दे के पीछे चल रहा था ... दिख नहीं रहा था लेकिन हर कोई जानता था ... लेकिन मंगलवार की शाम को जिस तरह भाजपा के तीन सांसदों ने लोकसभा में नोटों की गड्डियां लहरायीं ... उसके बाद जो बात दबी छुपी थी ... दुनिया के सामने आ गयी ... लोकसभा में इसके बाद जमकर हंगामा हुआ ... आखिरकार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नंगा सच सामने आ चुका था ... अब मीडिया और स्वयंभू बुद्धिजीवियों में इस बात की बहस शुरु हो गयी कि क्या भाजपा के सांसदों ने जो कुछ किया वो सही था ... सभी की अपनी अपनी राय थी ... कुछ का कहना था कि जब इन सांसदों को रिश्वत दी जा रही थी तो उन्होंने पुलिस को क्यों नहीं बुलाया ... तो कुछ का कहना था कि उन्हें इस तरह नोटों की गड्डियां लहराने की बजाये लोकसभा के अध्यक्ष के पास जाकर शिकायत करनी चाहिये थी ... बजाये इसके कि वो भारतीय लोकतंत्र की इस तरह सरेआम धज्जियां उड़ाते ... ज्यादातर बुद्धिजीवियों का यही मानना था कि तीनों सांसदों ने इस तरह का कारनामा अंजाम देकर भारत की छवि को दुनिया भर में बदनाम किया है ... लेकिन कोई यह नहीं सोच रहा कि भले ही भाजपा के यह तीनों सांसद दागदार छवि वाले हैं ... लेकिन उनकी इस हरकत से भारतीय लोकतंत्र का सच सामने आया है ... मीडिया के जो लोग यह कह रहे हैं कि तीनों सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष के पास जाकर शिकायत करनी चाहिये थी ... तो मैं तो कम से कम उनसे यह जानना चाहूंगा कि क्या उस सूरत में वो इस खबर को उतनी ही प्रमुखता से प्रसारित करते ... जैसा कि उन्होंने किया ... करीब करीब सभी चैनल उन तस्वीरों को बराबर चार-पांच घंटों तक दिखाते रहे जिसमें तीनों सांसद नोटों को लहरा रहे थे ... यह ठीक उसी तरह था जैसे क्रांतिकारियों ने बहरे अंग्रेजों को जगाने के लिए असेम्बली में बम फोड़ा था ... अगर इन मीडियाकर्मियों या स्वयंभू बुद्धिजीवियों को लगता था कि यह गलत हुआ है या इससे देश की बदनामी होती है ... तो उन्होंने क्यों नहीं उन तस्वीरों का प्रसारण रुकवा दिया ... आखिर क्यों उन्होंने देश की बदनामी होने दी ... उस समय तो देश की अस्मत उनके ही हाथ में थी ... सभी चैनल्स के यह तथाकथित बुद्धिजीवी आपस में बात करते और बचा लेते देश की अस्मत लुटने से ... लेकिन नहीं ... अगर ऐसा होता तो उन्हें बोलने के लिए मसाला कहां से मिलता ... अगर इन बुद्धिजीवियों का बस चलता तो भगत सिंह के असेम्बली में बम फोड़ने को भी गलत ठहरा देते ... कहते भगत सिंह को चाहिये था कि वो गली गली पर्चे बांटते ... नुक्कड़ नुक्कड़ सभा करते और लोगों तक अपनी बात पहुंचाते ... दरअसल कोई कुछ भी कहे ... जो कुछ हुआ बहुत अच्छा हुआ ... क्योंकि देश और दुनिया के सामने यह सच आ ही गया कि जिन सांसदों को हमारे देश के नागरिक चुनकर भेजते हैं वो क्या कुछ करते हैं ... जो चीजें पर्दे के पीछे हो रही थीं ... वो खुलकर सामने आ गयीं ... और यह देशहित में ही हुआ है ... अब लोग इसका राजनीतिक नफा नुकसान नापजोख रहे हैं ... लेकिन कुल मिलाकर देखा जाये तो यही भारतीय लोकतंत्र का काला सच है ... और इसे सामने आना ही चाहिये था ...

1 comment:

अनिल कुमार वर्मा said...

ऋतुराज जी,
आपने बिल्क़ुल सही कहा। हमारे देश का गौरवशाली लोकतंत्र दुनिया के सामने नंगा हो गया। आपका ये सवाल भी सही है कि मीडिया को अगर देश की छवि की इतनी ही चिंता थी तो क्यों नहीं उसने इस छवि को धूमिल करने वाली तस्वीरों का प्रसारण रुकवा दिया लेकिन एक तरह से मीडिया ने ये सब दिखाकर ठीक भी किया क्योंकि भारतीय राजनीति में फैली गंदगी अगर दिखेगी नहीं तो उससे छानने का काम कैसे होगा। दरअसल मैं कहना ये चाहता हूं कि अब वो वक्त आ गया है जब जनता को ही ये सोच समझकर फैसला करना होगा कि वे आखिर किस तरह के लोगों के हाथ में वो देश की कमान सौपना चाहती है क्योंकि यही वो प्वाइंट है जहां से राजनीति को धंधा बनाने वालों पर लगाम कसी जा सकती है।